स्वर्णकार समाज की सबसे बड़ी विभूतियों में से एक हैं श्री संत शिरोमणी नरहरि जी महाराज। इनकी महानता का आकलन इसी से किया जा सकता है कि रामचरितमानस के रचयिता तुलसीदास इन्हीं के शिष्य थे। इनका अर्विभाव संतों की जन्म एवं कर्म भूमि की पहचान रखने वाले महाराष्टï्र में हुआ था। ये संत नामदेव मुक्ता बाई गोरा कुम्हार जैसे संतों के समकालीन थे। इनका जन्म 1260 ई में माघ सुदी पूर्णिमा के दिन महाराष्टï्र के जालाना जिला अंतर्गत राजोली गांव में एक स्वर्णकार के यहां हुआ था। संत नरहरि के पूर्वजों को राजाश्रय प्राप्त था। सम्राट शालीवाहन के वे सरदार थे। पर पिता कुमुंद राज को काशी नरेश का राज्याध्यक्ष प्राप्त था। पिता अच्युत एवं सावित्री श्रीक्षेत्र पंढरपुर में निवास करते थे। उनकी स्थिति
साधार थी।
संत नरहरि के पिता अच्युत के हाथ से एक दिन एक हथौड़ा शिवलिंग पर जा गिरा और शिवलिंग खंडित हो गया। इसे अपशकुन मानकर वे बहुत खिन्न हुए। वे महर्षि चांगदेव की शरण में पहुंचे। महर्षि ने पूरा घटनाक्रम जाना और कहा कि यह अपशकुन नहीं है बल्कि शुभ संकेत है। यह आपके यहां पुत्र प्राप्ति का योग बता रहा है। आपके यहां भगवान श्रीराम अवतार के समय के वीर जामवंत अवतरित होंगे। इस तरह नरहरि के रूप में जामवंत का आर्विभाव अच्युत के पुत्र के रूप में हुआ।
नरहरि में अलौकिक प्रतिभा थी। वैराग्य और संन्यास की ओर बचपन से ही रूचि थी। विवाह आदि में जैसे सांसारिक जीवन में उनकी कोई दिलचस्पी नहीं थी। उनके व्यक्तित्व के इस पहलू को देखते हुए ही उनके पिता महर्षि गहनीनाथ के पास ले गए। उन्होंने नरहरि को शिष्य मानकर विवाह का उपदेश दिया। इसके बाद नासिक के श्रीपति सोनार की पुत्री गंगा से नरहरि का विवाह हुआ।
सांसारिक जीवन में लीन रहने के बावजूद संत नरहरि ने धर्म-आध्यात्म में अपनी गतिविधियों को जारी रखा। उन्होंने काव्य रचना की। भजन एवं अभंगों का सृजन किया। उन्होंने ईश्वर से प्रेम भक्तिपूर्ण सुसंवाद स्थापित किया। उन्होंने भगवान से विनती की कि मैं तुम्हारा सुनार हूं।
जहां अन्य संत ईश्वर को एक मानते थे वहीं संत नरहरि शिव के अलावा किसी अन्य देवता के दर्शन को भी तैयार नहीं थे। इससे सभी संत मंडली का चिंतित होना स्वभाविक था। क्योंकि संतों के जीवन दर्शन का प्रभाव सामान्यजनों की मानसिकता पर
होता है।
संत नरहरि की आराधना और भक्ति से प्रसन्न होकर स्वयं भगवान विष्णु ने श्री विठुल का रूप धारण किया और संत नरहरि को अपने दर्शन दिए। उधर शिरोड के हरि सेठ सांवरकर ने श्री क्षेत्र पंढरपुर के विठोबा (श्री भगवान विष्णु) को करधनी (करदोड़ा) चढ़ाने की मन्नत पूर्ण करने हेतु करधनी बनाने का कार्य नरहरि सोनार को सौंपा। उनके द्वारा बनाई गई करधनी दैवीय चमत्कार से कभी छोटी तो कभी बड़ी। यह क्रम कई दिनों तक चलता रहा। अंतत: नरहरि को स्वयं मापकर करगोड़ा बनाने का आग्रह सांवरकर ने किया। लेकिन नरहरि भगवान शिव को छोड़कर किसी भी परिस्थिति में किसी अन्य देवता का दर्शन करना नहीं चाहते थे। काफी अनुनय-विनय के बाद वे इस शर्त पर विठल मंदिर में करगोड़ा का नाप लेने को तैयार हुए कि वे आंखों पर पट्टी बांधकर मंदिर में जाएंगे।
उन्होंने ऐसा ही किया। आंख पर पट्टी बांधकर वे विट्ठल मंदिर गए। वहां पर चमत्कार हुआ। वह विट्ठल मूर्ति को हाथ से स्पर्श करते तो शिवपिंड लगती और प्रसन्न होकर जब अपने आराध्य देव के दर्शन को आंखों से पट्टी हटाते तो विट्ठल की मूर्ति दिखाई देती। तब खिन्न होकर फिर आंखों पर पट्टी बांध लेते थे। आंख से पटटी हटाने और बांधने का यह क्रम बार-बार चलता रहा। अंतत: भगवान विट्ठल ने स्वयं प्रकट होकर नरहरि को दर्शन दिए और उन्हें बताया कि ‘हर और हरिÓ अलग न होकर एक ही हैं।
देव एक हैं उनके रूप अनेक हैं। यहां पर नरहरि का भ्रम दूर हो गया। उन्होंने अपने आराध्य शिव के साथ-साथ अन्य देवों को भी उसी तरह स्मरण करने की बात कही जिस तरह से शिव की आराधना करते थे। इसके बाद सभी संत मंडली में अभूतपूर्व मिलन हुआ। संत नरहरि ने भी इसके बाद समाज को बहुत कुछ दिया। ई. सन् 1314 माघ कृष्ण तृतीया को अनन्त में विलीन हो गए।