asd
Wednesday, November 20, 2024
More
    No menu items!

    Latest Posts

    भगवान विश्वकर्मा के वंशज स्वर्णकार-शिल्पकार

    भगवान विश्वकर्मा को वेदों में ब्रम्हा, विराट पुरुष एवं परमेश्वर इत्यादि कहा गया है। ऋगवेद कहता है- जिस समय पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, ज्ञान, बुद्धि, इंद्रियां, ब्रह्मïा, विष्णु, रूद्र, तारे ये सब कुछ नहीं थे। सब शून्य था उस समय केवल स्वयंभू विश्वकर्मा थे। वे ही सर्व शक्तिमान, सृष्टिï रचयिता एवं सर्वज्ञ हैं।

    इसके अतिरिक्त वेदों या पुराणों में जहां कहीं शिल्पकला एवं शिल्पशास्त्र का वर्णन आया है वहां भी विश्वकर्मा देव की चर्चा हुई है। वेदों के विभिन्न वर्णन से पता चलता है कि विश्वकर्मा नामक एक महान कलाकार थे जो शिल्पशास्त्र के आचार्य थे। यह शिल्पाचार्य विश्वकर्मा देव जाति के कुलदेव हैं।
    शिल्पशास्त्र के आचार्य भगवान विश्वकर्मा प्रजापति के कनिष्ठ पुत्र थे। उनकी माता का नाम रचना था।

    विश्वकर्मा के बड़े भाई का नाम विश्वदेव था, जिन्हें इंद्र ने मार डाला था। वायु पुराण में लिखा है-प्रजापति को विश्वदेव और विश्वकर्मा नामक दो पुत्र थे। विश्वकर्मा ब्रह्मïर्षि शुक्राचार्य के पौत्र एवं भृगु ऋषि के प्रपौत्र थे। इससे सिद्ध होता है कि शिल्पाचार्य विश्वकर्मा ब्रह्मïर्षि शुक्राचार्य के पौत्र होने के नाते ब्राह्मïण कुल के अवश्य थे।

    प्रजापति के पुत्र शिल्पाचार्य विश्वकर्मा के पांच पुत्र थे जो क्रमश: लोहकारी, काष्ठकारी, ताम्रकारी, शिल्पकारी एवं स्वर्णकारी का कार्य करते थे।

    इसके प्रसंग में एक श्लोक है :

    अयो मनु ऋग्देवमï्।
    मयो द स यजुस्तथा।।
    ताम्र त्वष्ठा रषा समामï्।
    शिल्पा शिल्पी अथवण।।
    विश्वरा स्वर्ण प्रणवम।
    पंच ब्राह्मïण विधीयते।।

    इसका अर्थ है कि मनु मय त्वष्ठा, शिल्पी एवं विश्वरा ये पांच ब्राह्मïण थे जो क्रमश: ऋगवेद, अर्थवेद, सामवेद एवं प्रणववेद के ज्ञाता थे। कहा जाता है कि ये पांचों व्यक्ति ही विश्वकर्मा के पुत्र थे।

    प्राचीन समय में जाति भेद की बात नहीं थी। भारत भूमि में बसने वाले व्यक्ति आर्य और अनार्य दो ही वर्ग थे। आर्य लोग ब्राह्मïण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में कर्मानुसार विभक्त थे। किन्तु कालान्तर में वर्ग भेद हो गया। इस प्रकार शिल्पकला के कार्य करने वालों का विभाग भी अलग हो गया और पुन: ये लोग भी स्थानानुसार भिन्न-भिन्न श्रेणियों में बंट गए। किन्तु विचार कर देखा जाए तो पता लगेगा कि सभी श्रेणियों में शिल्पकार की उत्पत्ति एक ही स्थान से है। सभी शिल्पकार विश्वकर्मा देव के वंशज हैं। विश्वकर्मा जाति के ब्राह्मïण पंचाल देश के निवासी थे अत: विश्वकर्मा जाति के वंशज कितने स्थानों में विश्वकर्मा ब्राह्मïण एवं पांचाल ब्राह्मïण भी कहलाते हैं।

    मध्य युग में भी विश्वकर्मा देव के वंशजों में अनेक महान पुरुष हो गए हैं। राजा मनु के वंश में उत्पन्न लंका का सर्वप्रथम राजा विजय विश्वकर्मा ब्राह्मïण थे। भारत से राजा विजय के साथ पांच विश्वकर्मा ब्राह्मïण गए थे। जिनके पूर्वजों ने राजा मनु को राजमुकुट धारण करवाया था। कारण राजमुकुट का निर्माण करने एवं राजमुकुट धारण करवाने का काम विश्वकर्मा वंशियों का था। इसके अतिरिक्त गौतम बुद्ध के शिष्य करोड़पति श्री चन्दा विश्वकर्मा वंशज ही थे।

    वर्तमान काल में भी विश्वकर्मा ब्राह्मïण की शाखाएं समस्त भारत में फैली हुई है। ये लोग बंगाल में कर्मकार, कर्मार एवं स्वर्णकार, बिहार में कमरकला, कमार, सुनार, सूतीहार, बढ़ई, लुहार, बंबई एवं मद्रास में कमलार, कसाल, पंचाल, जगद्गुरु, मझल, तरहल, शिल्पी, तीच्य आचार्य, विश्व ब्रह्मï, देव ब्रह्मï एवं कर्मकार के नामों से पुकारे जाते हैं। विश्वकर्मा ब्राह्मïण लंका में आचार्य, बाड़ गलवडï्ड, लोगरु एवं बादल भी कहलाते हैं। आचार्य श्रेणी में लुहार, फिटर, लोहे के काम करने वाले हैं, आड्ड में बढ़ई कमान बनाने वाले लोग और लकड़ी के काम करने वाले लोग हैं।

    उसी प्रकार लोकगुरु में तांबा, पीतल के काम करने वाले तथा बादल में सोने-चांदी के कार्य करने वाले एवं जौहरी लोग हैं। युक्त प्रांत एवं दिल्ली की ओर विश्वकर्मा ब्राह्मïण नागिड, कोकस, धीमान, मगधिया, कनौजिया कमार कहलाते हैं। अनुसंधान करने पर विश्वकर्मा वंशियों के लिए उपयोग किए गए शब्द ऐसे मिले हैं जिससे उपर्युक्त जातियों के होने में जरा भी शक की गुंजाइश नहीं रहती है। कर्मकार जाति के लोग स्वर्णकारी, लौहकारी एवं काष्ठकारी सभी श्रेणियों के कार्य करते हैं। पंडित ईश्वरदत्त शर्मा ने कहा है कि कर्मकार जाति का उत्पत्ति विश्वकर्मा एवं उनकी सवर्ण धर्मपत्नी शुद्रा से हुई है।

    श्री दामोदर स्वरूप ने अपने हिन्दी-रत्नकोष में कर्मकार शब्द का अर्थ स्वर्णकार एवं लौहकार लिखा है। एक संस्कृत की उक्ति है ‘यह काष्ठं करोति स: कर्मकार:। इस प्रकार हम देखते हैं कि कर्मकार ही स्वर्णकार, लौहकार एवं काष्ठकार है किन्तु जातियों में वर्गीकरण के कारण ही हमारा समाज खोखला बनता जा रहा है। हमलोग जितने शिल्पकार जाति हैं सब एक हैं। विभिन्न-विभिन्न स्थानों में रहने के कारण ही विभिन्न नामों से पुकारे जाते हैं। शिल्पकला का मूर्त रूप देने वाले लौहकार, काष्ठकार, स्वर्णकार, ताम्रकार एवं शिल्पा सबके सब विश्वकर्मा की संतान हैं। अत: हम सभी शिल्पकार जाति विश्वकर्मा
    ब्राह्मïण हैं।

    LEAVE A REPLY

    Please enter your comment!
    Please enter your name here

    Latest Posts

    Don't Miss