स्वर्णकार समाज की नई पीढ़ी में से बहुतों को शायद ही पता होगा कि हमारे पूर्वजों ने एक डरावनी रात का सपना किया था जो हमारे कारोबार के अस्तित्व पर संकट बनकर आई थी। उस काली रात की काली छाया सिर्फ 12 घंटे ही नहीं रही बल्कि वह हमें लगभग 27 सालों तक परेशान किए रही। 9 जनवरी 1963 की वह अत्यंत डरावनी रात थी जब तत्कालीन केंद्र सरकार ने स्वर्ण नियंत्रण कानून के प्रभावी होने का ऐलान कर दिया। एक अध्यादेश के जरिए आए इस फरमान से पूरे देश के लगभग 20 लाख स्वर्णकार आसमान से जमीन पर आ गिरे थे। इससे स्वर्ण व्यवसायियों का जीना मुश्किल हो गया था।
कहते हैं संकट में ही हौसला आता है और मुकाबला पाने की शक्ति भी। जब केंद्र सरकार ने स्वर्ण नियंत्रण कानून जिसे गोल्ड कंट्रोल एक्ट के नाम से भी जाना जाता है तो पूरे देश में उबाल आ गया। जमशेदपुर, रांची, धनबाद समेत पूरे देश में आंदोलन शुरू हो गया। हजारों परिवारों के सामने बेकारी मुंह बाए खड़ी हो गई। आलम यह हुआ कि स्वर्णकार समाज ने इसके खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूक दिया। दारोगी प्रसाद वर्मा और मोतीलाल सोनी जैसे समाज के दिग्गजों ने घर परिवार और कारोबार की परवाह किए बगैर इस आंदोलन में जी जान से कूद पड़े। त्याग का अनोखा उदाहरण प्रस्तुत करते हुए दोनों लोगों ने आंदोलन को सशक्त और धारदार बनाने में अहम भूमिका निभाई। उस दिन और कालखंड को याद कर आज भी स्वर्णकार समाज के बुजुर्ग लोगों का रूह कांप जाता है और बुढ़ापे में भी खून खौल उठता है। यह स्थिति हो भी क्यों नहीं। अस्तित्व के सामने अचानक सरकार ने भारी संकट जो खड़ा कर दिया था। इस कानून के प्रभावी होने के अगले ही दिन जब दुकान खोलने कारोबारी आए तो वहां पहले से पुलिस तैनात थी। कारोबार को सरकार की निगरानी में रखने के लिए पुलिस को वहां तैनात कर दिया था।
स्वर्णकार समाज ने गोल्ड नियंत्रण कानून को काला कानून के रूप में निरूपित किया और इसके खिलाफ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। पूरे देश में आंदोलन हुआ। 300 से ज्यादा स्वर्णकारों ने अपनी जान देकर इस आंदोलन की आग को और प्रज्ज्वलित करने का काम किया। परिणामस्वरूप तत्कालीन वित्त मंत्री मोरारजी देसाई को हटाकर कृष्णामाचारी को नया वित्त मंत्री बनाया गया। लेकिन स्वर्णकारों का आंदोलन जारी रहा। इस आंदोलन को दबाने के लिए सरकार के स्तर से कई तरह के हथकंडे अपनाए गए। अनुदान और पुनर्वास का पैकेज आया। लेकिन स्वर्णकार सरकार की मंशा समझ चुकी थी और उन्होंने अपना आंदोलन जारी रखा। इस आंदोलन के दौरान समाज को कई क्रांतिवीर मिले जो पढ़े लिखे तो ज्यादा नहीं थे लेकिन वैचारिक और नैतिक प्रखरता उनमें कूट-कूट कर भरी थी जो समाज के लिए ही बने थे। एक ऐसे ही क्रांतीवीर थे दारोगाी प्रसाद वर्मा व मोतीलाल सोनी दोनों ने अपने भरे पूरे परिवार की चिंता छोड़ आंदोलन का बिगुल फूंक दिया। उस समय आंदोलन करना आग से खेलने जैसा हुआ करता था। आंदोलन करने वाले को तत्काल जेल में डाल दिया जाता था। लेकिन जमशेदपुर विश्वकर्मा कारीगर संघ के बैनरत तले दारोगी प्रसाद वर्मा और मोतीलाल सोनी जैसे दिग्गजों ने आंदोलन की मशाल जलाए रखी।
एक तरफ ये लोग सरकार से लड़ रहे थे जो दूसरी ओर समाजसेवा का भी काम कर रहे थे। आपसी सहयोग और चंदे के जरिए वे लोग उन सैकड़ों हजारों परिवारों को चावल-दाल समेत दूसरी जरूरी सामग्री को भी मुहैया करा रहे थे जो परविार इस काले कानून के कारण भूखमरी के कगार पर अचानक पहुंच गए थे।
आंदोलन ने असर दिखाया। स्वर्णकार समाज के लिए सरकारी और गैरसरकारी स्तर पर कुछ काम भी हुए। स्वर्णकार समाज के करीब 20 लोगों को तब की टिस्को और आज की टाटा स्टील और तब की टेल्को और आज की टाटा मोटर्स में नौकरी भी दी। इसका श्रेय दारोगी प्रसाद वर्मा जी के कुशल और सक्षम नेतृत्व को जाता है। इस आंदोलन का एक सकारात्मक नतीजा इस रूप में भी सामने आया कि जमशेदपुर में विश्वकर्मा कारीगर संघ काफी प्रभावी तरीके से सक्रिय हो गया जो आज एक वटवृक्ष के रूप में खड़ा है।
यदि राष्टï्रीय स्तर पर इस आंदोलन के असर को देखा जाए तो स्वर्णकार समाज में यह अनुभव किया जाने लगा कि अखिल भारतीय स्तर पर एक ऐसे संगठन का गठन हो जो पूरे देश में स्वर्णकार समाज का नेतृत्व कर सके। इसी के बाद 15, 16 एवं 17 फरवरी 1963 को दिल्ली में अखिल भारतीय स्वर्णकार सम्मेलन हुआ जिसमें राष्टï्रीय स्तर के संगठन अखिल भारतीय स्वर्णकार संघ की स्थापना की गई। इसके प्रथम अध्यक्ष भवानी शंकर, आसाराम सोनी (गुजरात), एवं दिल्ली के जसवंत सिंह महासचिव चुने गए।
कार्यकारिणी में हर राज्य के दो प्रतिनिधियों को रखा गया। अखिल भारतीय स्तर पर स्वर्णकारों ने पहली बार 28 फरवरी 1963 को मांग दिवस मनाया था। 9 अप्रैल से 25 अप्रैल 1963 तक देश भर के स्वर्णकारों ने अभियान चलाकर तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू को मांग पत्र भेजा था। उसी साल 16 मई से 19 मई तक मुंबई (तब बंबई) स्थित सचिवालय के सामने 72 घंटे का उपवास किया गया। 21 मई से 1 जून 1963 तक तत्कालीन प्रधानमंत्री के आवास के सामने नई दिल्ली में धरना उपवास का कार्यक्रम चला। अंतत: सरकार को कुछ झुकना पड़ा और प्रधानमंत्री के प्रतिनिधि के आश्वासन के बाद वह आंदोलन खत्म हुआ था। हालांकि सरकार ने तब स्वर्ण नियंत्रण कानून को वापस तो नहीं लिया लेकिन थोड़ी राहत जरूर प्रदान की। बावजूद इसके स्वर्णकार समाज ने इस काले कानून के खिलाफ अपना अभियान जारी रखा। 1990 में विश्वाथ प्रताप की पहल पर केंद्र सरकार ने इस काले कानून को समाप्त कर दिया।